पहले तर्क से संतुष्ट होती थी, फिर एजेंसी नियुक्त करती थी केंद्र सरकार; अब 10 एजेंसियां पहले से ही तय
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 20 दिसंबर को एक नोटिफिकेशन जारी किया है। जो कहता है कि देश की 10 एजेंसियां किसी भी नागरिक के कम्प्यूटर से जनरेट हो रही, भेजी व मंगाई जा रही और उसमें स्टोर सूचनाओं को रोक सकती हैं। वे इसकी निगरानी कर सकती हैं और इसे पढ़ सकती हैं।
ये एजेंसियां इंटेलिजेंस ब्यूरो, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट, सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज, डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन, नेशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी, डायरेक्टरेट ऑफ सिग्नल इंटेलिजेंस, कैबिनेट सेक्रेटरिएट(रॉ), तथा दिल्ली पुलिस कमिश्नर हैं।
नोटिफिकेशन में यह भी कहा गया है कि हर सब्सक्राइबर, सर्विस प्रोवाइडर या कम्प्यूटर रिसोर्स का मालिक इन एजेंसियों को सूचनाएं खंगालने का अधिकार देने के लिए बाध्य होगा। अगर कोई इससे इनकार करता है तो उसे सात साल तक की कैद हो सकती है। विपक्ष को डर सता रहा है कि सरकार इस निगरानी को उनके खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकती है। हालांकि कुछ जाने-माने आईटी व रक्षा विशेषज्ञ भी इस पर चिंता जाहिर कर रहे हैं।
विवाद की बड़ी वजह : निजता के अधिकार से टकराव की आशंका
देश की 10 एजेंसियों को किसी भी कम्प्यूटर का डेटा खंगालने का हक देने वाले केंद्र सरकार के आदेश का विरोध हो रहा है। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दल आदेश को वापस लेने का दबाव बना रहे हैं। इसी मांग को लेकर इन्होंने शुक्रवार 21 दिसंबर को संसद में जमकर हंगामा भी किया।
वैसे इसे लेकर ट्विटर पर जंग तो एक दिन पहले से ही शुरू हो गई थी। उस दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा था- 'देश को पुलिस स्टेट में बदलने से कोई फायदा नहीं मिलेगा मोदी जी। यह 100 करोड़ लोगों के सामने साबित करता है कि आप कितने डरे हुए शासक हैं।'
इधर, सरकार का तर्क है कि इससे आतंकी नेटवर्क को नाकाम करने में मदद मिलेगी। हाल ही में नेशनल इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी द्वारा इस्लामिक स्टेट के बड़े मॉड्यूल के भांडाफोड़ के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार के इस नोटिफिकेशन की जरूरत का अहसास भी दिलाया। उन्होंने सवाल किया कि क्या बिना निगरानी एेसी कार्रवाई संभव है?
मगर इस पर आईटी के जानकारों की चिंता की ये है वजह....
प्रक्रिया पर असर
पहलेः कम्प्यूटर में मौजूद डेटा तक सरकार की पहुंच पहले भी थी। यह अधिकार आईटी एक्ट-2000 की धारा-69(1) के तहत दिया गया है। मूल कानून में स्पष्ट था कि केंद्र सरकार या राज्य सरकार के गृह सचिव एजेंसी को डेटा तक पहुंचने के अधिकार दे सकते हैं। उन परिस्थितियों में जब वे देश की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध से जुड़ा खतरा महसूस करते हों।
अबः साइबर लॉ एक्सपर्ट पवन दुग्गल ने भास्कर से बातचीत में बताया कि केंद्र व राज्य सरकार के गृह सचिव इसकी जरूरत से जुड़े तर्कों का रिव्यू करते थे। संतुष्ट होने पर ही वे एजेंसी को नियुक्त करते थे। इन्हें एजेंसी नियुक्त करने की वजह भी लिखित में बतानी होती थी। मगर अब 10 एजेंसियां पहले ही नियुक्त कर दी गई हैं। यह लोगों में शक पैदा कर रहा है।
अधिकार पर असर
पहलेः सन् 2000 में आईटी एक्ट आया था तब इसके अधिकार सीमित थे। इनके तहत सिर्फ इंटरसेप्शन (सूचना को अवरुद्ध) किया जा सकता था। मगर 2008 के संशोधनों में इसमें मॉनिटरिंग तथा डिस्क्रिप्शन के अधिकार भी शामिल किए गए। इधर, टेलीग्राफ अधिनियम-1885 सरकार की इस ताकत को और बढ़ाता है, जिसके तहत सरकार फोन कॉल और संदेशों पर नजर रख सकती है।
अबः सरकार ने एजेंसियों को सीधे अधिकार दे दिए हैं। वहीं कोई अॉपरेटर डेटा देने से इनकार करता है तो उसे सजा का प्रावधान है। इसे टेलीग्राफ एक्ट के साथ जोड़कर देखें तो पसर्नल डेटा तक सरकार की पहुंच पहले से ज्यादा है। इन्हीं वजहों से निजता के अधिकार के हनन की आशंका जताई जा रही है। इसलिए आईटी एक्ट की धारा 69(1) की समीक्षा की मांग उठ रही है।
जब कोर्ट में पहुंचा जासूसी का मामला
1990 में पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री चंंद्रशेखर ने वीपी सिंह सरकार पर विपक्षी नेताओं के फोन टेप करवाने का आरोप लगाया था। तब पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज नाम का मानवाधिकार संगठन इस कथित जासूसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
यह भी पता चला कि देश में फोन टेपिंग की न कोई सही प्रक्रिया है न इसे रोक पाने के सही उपाय हैं। 1996 में इस पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशानिर्देश जारी किए। कोर्ट ने कहा कि अगर किसी का फोन टेप करने की जरूरत महसूस होती है तो केंद्र सरकार के गृह सचिव या राज्य सरकार के इसी ओहदे के अधिकारी इसके लिए आदेश दे सकते हैं। कोर्ट की यही गाइडलाइंस आगे चलकर टेलीग्राफ कानून का हिस्सा बनीं।
असरः विदेशों से डेटा मांगना आसान
आईटी एक्सपर्ट अभिषेक धाभई कहते हैं कि अब सरकार हर कम्प्यूटर तक पहुंच बना रही है, यह कहना गलत है। एेसा पहले भी होता रहा है और यह जरूरी था। इसलिए कि अगर कानून न हो और एजेंसियां कम्प्यूटर डेटा खंगालकर किसी अातंकी नेटवर्क का भांडाफोड़ करे, तो सबूत कोर्ट में मान्य ही नहीं होते। नए नोटिफिकेशन के बाद चूंकि डेटा खंगालने की प्रक्रिया ज्यादा स्पष्ट है, इसलिए अब एेसे सबूत वैध माने जाएंगे। कोई इंटरसेप्शन के तरीके को गैरकानूनी बताकर इसे चुनौती नहीं दे सकता।
- पहले किसी भी राज्य या शहर की पुलिस भी डेटा के लिए विदेशी संस्थाओं को रिक्वेस्ट भेज देती थी। कई बार इन्हें उचित जवाब नहीं मिलता था। मगर अब यह व्यवस्था केंद्रीकृत है। केंद्र से जुड़ी इन 10 एजेंसियों की सूची विदेशी एजेंसी के साथ साझा की जाएगी। एेसे में डेटा के दुरुपयोग की आशंका भी कम हो जाएगी।
- मगर यहां बनी रहेगी आशंकाः सवाल यह है कि ये केंद्रीय एजेंसियां जो डेटा जुटाएंगी उसे कौन देखेगा, क्या कोई जिम्मेदार कमेटी है? फिर इसे किस प्रोटोकॉल के तहत देखा जाएगा? इस डेटा को नष्ट कैसे करेंगे? यह सब अब भी स्पष्ट नहीं है। इस वजह से जरूर डेटा के दुरुपयोग की आशंकाएं नजर आती हैं।
आगे यह होगा
केंद्र के नोटिफिकेशन के खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। दो याचिकाकर्ताओं ने गृह मंत्रालय के इस आदेश को रद्द करने की मांग की है। इस पर कोर्ट ने कहा है कि इस मामले में जल्दबाजी की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि जांच एजेंसियों ने डेटा खंगालने का अपना दायरा बढ़ाया तो निजता के उल्लंघन के मामले कोर्ट में बढ़ सकते हैं। इसलिए भी कि सुप्रीम कोर्ट ने निजता को 2017 में ही मौलिक अधिकार का दर्जा दिया है।
सोशल मीडिया वाले प्रस्ताव से भी चिंता
अपने नोटिफिकेशन के 4 दिन बाद ही केंद्र सरकार ने आईटी एक्ट-2000 में प्रस्तावित संसोधन को भी प्रकाशित किया है। इसके मुताबिक सोशल मीडिया कंपनियां यह सुनिश्चित करेंगी कि भारत में किसी भी शख्स के कंटेंट को 'ट्रेस' किया जा सके।
फिलहाल सोशल मीडिया कंपनियां डिलीट किया हुआ डेटा 90 से 180 दिनों तक सेव रखती हैं, लेकिन प्रस्ताव पास हुआ तो सरकारी एजेंसियां किसी खास डेटा को ज्यादा समय के लिए सर्वर पर सेव रखवा सकती हैं। ये प्रस्ताव सरकार को ज्यादा शक्तियां दे रहे हैं, जो अातंकी घटनाओं को रोकने के लिए जरूरी भी है। मगर एक्सपर्ट्स को इसका दुरुपयोग रोकने के लिए काउंटर चेक एंड बैलेंस की कमी नजर आ रही है।
राजनीतिक पार्टियों को जासूसी की चिंता
विपक्षी दलों के हंगामे का एक बड़ा कारण यह है कि इन्हेें डर है एजेंसियों का इस्तेमाल कहीं उनके खिलाफ जासूसी के टूल के रूप में न किया जाने लगे। यही वजह है कि पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने इसे अॉर्वेलियन स्टेट की स्थापना का प्रयास तक बताया है।
यह बिहार में जन्मे ब्रिटिश मूल के लेखक जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास '1984' का एक काल्पनिक राज्य है, जहां पुलिस हर शख्स की हर गतिविधि पर नजर रखती है। वैसे इसके जवाब में सरकार ने कहा है कि ताजा नोटिफिकेशन में कुछ नया नहीं है। एेसी निगरानी कांग्रेस के समय से ही होती आ रही है।
हर महीने 7500 से 9000 फोन की होती थी निगरानी
एक आरटीआई से खुलासा हुआ है कि यूपीए-2 के दौरान हर महीने केंद्र सरकार की तरफ से 7500 से 9000 फोन कॉल्स के इंटरसेप्शन के आदेश जारी किए जाते थे। इसके अलावा 500 ई-मेल्स की भी निगरानी की जाती थी। आरटीआई में सरकार ने खुलासा किया था कि मुंबई हमलों के बाद से वे भी 10 एजेंसियों को इंटरसेप्शन के अधिकार देते आ रहे हैं।
- 1885में ब्रिटिश राज में टेलीग्राफ एक्ट आया था। इस कानून में बड़े बदलाव 2007 में हुए।
- 2007-08में इंटरसेप्शन की प्रक्रिया की निगरानी के लिए सेंट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम बना। इसके अधीन 21 रीजनल सिस्टम हैं।
- 2011में सरकार ने स्टैंडर्ड अॉपरेटिंग प्रोसीजर बनाया, डेटा खंगालने की प्रक्रिया बताता था यह।
- 2008में मुंबई हमलों के एक साल बाद यूपीए-2 सरकार कम्प्यूटर डेटा खंगालने के लिए नियम लेकर आई थी।
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